विविध >> आदर्श प्रबंधन के सूक्त आदर्श प्रबंधन के सूक्तसुरेश कांत
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आदर्श प्रबंधन स्थापित करने में सहायक अनेक देशी-विदेशी प्रबंधन-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालकों आदि के उद्धरण...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका: क्या, कैसे और किसके लिए
आज से लगभग चार साल पहले हिंदी के पहले
बिजनेस-डेली ‘अमर उजाला कारोबार’ के प्रकाशन के साथ
हिंदी की व्यावसायिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक क्रांति हुई थी। उसके
खूबसूरत कलेवर, पेशेवराना प्रस्तुति और उच्चस्तरीय सामग्री ने मुझे भी
उसके साथ बतौर लेखक जुड़ने के लिए प्रेरित किया। और तब से उसमें हर
मंगलवार को प्रकाशित होनेवाले अपने कॉलम में मैं प्रबंधन के विभिन्न
पहलुओं पर नियमित रूप से लिखता रहा।
एक विषय के रूप में प्रबंधन की ओर मेरा झुकाव रिज़र्व बैंक में अपनी कानपुर-पोस्टिंग के दौरान अपने कार्यालय-अध्यक्ष श्री केवल कृष्ण मुदगिल की प्रेरणा से हुआ। बाद में कानपुर से दिल्ली आने पर दिल्ली-कार्यालय के अध्यक्ष श्री सैयद मुहम्मद तक़ी हुसैनी ने मुझे नया कुछ करने की प्रेरणा दी, तो मेरा ध्यान प्रबंधन पर लिखने की तरफ ही गया। हिंदी में इस तरह के लेखन का नितांत अभाव था और ‘हिंदीवाला’ होने के नाते मैं इस अभाव की पूर्ति करना अपना कर्तव्य भी समझता था। लिहाजा मुदगिल जी और हुसैनी साहब जैसे हितैषियों की प्रेरणा, अपने कर्तव्य-बोध और ‘कारोबार’ के प्रकाशन की शुरूआत-इन तीनों ने मुझे इस विषय पर लिखने की राह पर डाल दिया।
प्रबंधन मेरी नजर में आत्म-विकास की सतत प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें, तो प्रबंधन का ताल्लुक कंपनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान ही बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधक या कारोबारी हो सकता है। प्रबंधन पर लिखते समय मेरे ध्यान में यह पूरा लक्ष्य-समूह रहता है और मैं अखबार से मिलनेवाले फीडबैक तथा पाठकों से सीधे प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि मैं प्रबंधन को हिंदीभाषी छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों, कारोबारियों और कर्मचारियों-अधिकारियों-प्रबंधकों के बीच ही नहीं, इस विषय से सीधा संबंध न रखनेवाले आम आदमी के बीच भी लोकप्रिय बनाने में कामयाब रहा हूँ।
इस व्यापक लक्ष्य-समूह को मद्देनजर रखते हुए और साथ ही प्रबंधन की विभिन्न अवधारणाओं को समझने में हो सकनेवाली गफलत की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से भी, मैंने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है और इसके लिए ‘यानी’ वाली शैली अपनाई है, जैसे अंतःक्रिया यानी इंटरएक्शन, प्रत्यायोजन यानी डेलीगेशन, कल्पना यानी विजन आदि। जहाँ हिंदी के शब्द अप्रचलित और क्लिष्ट लगे, वहाँ मैंने केवल अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं किया। शुद्धतावादी इससे कुछ परेशान हो सकते हैं, पर हिंदी को जीवंत और रवाँ बनाए रखने के लिए यह जरूरी था। मैं शुद्धतावादियों का खयाल रखता या अपने पाठकों और अपनी हिंदी का ? शुद्धतावादियों की जानकारी के लिए बता दूँ कि खुद ‘हिंदी’ शब्द विदेशी है। और भी ऐसे अनेक शब्द, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते कि वे हिंदी के नहीं होंगे, हिंदी के नहीं हैं। कागज, कलम, पेन, कमीज, कुर्ता, पाजामा, पैंट, चाकू, चाय, कुर्सी, मेज, बस, कार रेल, रिक्शा, चेक, ड्राफ्ट, कामरेड, दफ्तर, फाइल, बैंक आदि में से कोई अंग्रेजी का शब्द है, तो कोई अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, जापानी आदि में से किसी का। और ऐसे शब्दों की एक लम्बी सूची है। असल में यह हिंदी की ताकत है, कमजोरी नहीं।
लेखों में अनेक देशी-विदेशी प्रबंधन-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालकों आदि के उद्धरण मिलेंगे; यह ज्ञान बघारने या बोझ से मारने के लिए नहीं, बात को स्पष्ट करने और प्रामाणिक बनाने के लिए हैं।
अशोक महेश्वरी जी ने जब मुझे पत्र लिखकर सूचित किया कि वे ‘कारोबार’ में मेरे लेख नियमित रूप से पढ़ रहे हैं और उनसे स्वयं उन्हें भी बहुत लाभ पहुँचा है, तो मेरे उत्साह की कोई सीमा न रही। अब वे उन्हें पुस्तक-रूप में छापने का दायित्व भी उठा रहे हैं। हरीश आनंद जी ने भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर मेरी सहायता की है। उनके द्वारा सुनाया गया किस्सा मुझे अब तक याद है और वह यह कि एक व्यक्ति ने अपने हाथों में पकड़े एक पक्षी को पीठ पीछे ले जाते हुए अपने मित्र से पूछा- बताओ, यह पक्षी मरा हुआ है या जिंदा ? मित्र ने झट से कहा-ऑप्शन तुम्हारे पास है, क्योंकि अगर मैं कहूँगा कि जिंदा है, तो तुम पीछे ही इसकी गर्दन मरोड़कर मुझे दिखा सकते हो; और मैं कहूँ कि मरा हुआ है, तो जिंदा तो तुम इसे दिखा ही दोगे। इसी की तर्ज पर मैं भी यह कहना चाहता हूं कि प्रबंधन एक ऐसी विद्या है, जिसके द्वारा हम अपने व्यक्तित्व, घर-परिवार दफ्तर और कारोबार-सबकी काया पलट सकते हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। हम ऐसा करें या नहीं, यह विकल्प हमारे अपने हाथ में है।
अंत में, जिस-जिससे भी मुझे अपने इस प्रयास में सहायता मिली, उन सबके प्रति मैं शायर के इन शब्दों में आभार व्यक्त करता हूँ :
नशेमन पे मेरे एहसान सारे चमन का है,
कोई तिनका कहीं का है, कोई तिनका कहीं का है।
एक विषय के रूप में प्रबंधन की ओर मेरा झुकाव रिज़र्व बैंक में अपनी कानपुर-पोस्टिंग के दौरान अपने कार्यालय-अध्यक्ष श्री केवल कृष्ण मुदगिल की प्रेरणा से हुआ। बाद में कानपुर से दिल्ली आने पर दिल्ली-कार्यालय के अध्यक्ष श्री सैयद मुहम्मद तक़ी हुसैनी ने मुझे नया कुछ करने की प्रेरणा दी, तो मेरा ध्यान प्रबंधन पर लिखने की तरफ ही गया। हिंदी में इस तरह के लेखन का नितांत अभाव था और ‘हिंदीवाला’ होने के नाते मैं इस अभाव की पूर्ति करना अपना कर्तव्य भी समझता था। लिहाजा मुदगिल जी और हुसैनी साहब जैसे हितैषियों की प्रेरणा, अपने कर्तव्य-बोध और ‘कारोबार’ के प्रकाशन की शुरूआत-इन तीनों ने मुझे इस विषय पर लिखने की राह पर डाल दिया।
प्रबंधन मेरी नजर में आत्म-विकास की सतत प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें, तो प्रबंधन का ताल्लुक कंपनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान ही बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधक या कारोबारी हो सकता है। प्रबंधन पर लिखते समय मेरे ध्यान में यह पूरा लक्ष्य-समूह रहता है और मैं अखबार से मिलनेवाले फीडबैक तथा पाठकों से सीधे प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि मैं प्रबंधन को हिंदीभाषी छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों, कारोबारियों और कर्मचारियों-अधिकारियों-प्रबंधकों के बीच ही नहीं, इस विषय से सीधा संबंध न रखनेवाले आम आदमी के बीच भी लोकप्रिय बनाने में कामयाब रहा हूँ।
इस व्यापक लक्ष्य-समूह को मद्देनजर रखते हुए और साथ ही प्रबंधन की विभिन्न अवधारणाओं को समझने में हो सकनेवाली गफलत की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से भी, मैंने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है और इसके लिए ‘यानी’ वाली शैली अपनाई है, जैसे अंतःक्रिया यानी इंटरएक्शन, प्रत्यायोजन यानी डेलीगेशन, कल्पना यानी विजन आदि। जहाँ हिंदी के शब्द अप्रचलित और क्लिष्ट लगे, वहाँ मैंने केवल अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं किया। शुद्धतावादी इससे कुछ परेशान हो सकते हैं, पर हिंदी को जीवंत और रवाँ बनाए रखने के लिए यह जरूरी था। मैं शुद्धतावादियों का खयाल रखता या अपने पाठकों और अपनी हिंदी का ? शुद्धतावादियों की जानकारी के लिए बता दूँ कि खुद ‘हिंदी’ शब्द विदेशी है। और भी ऐसे अनेक शब्द, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते कि वे हिंदी के नहीं होंगे, हिंदी के नहीं हैं। कागज, कलम, पेन, कमीज, कुर्ता, पाजामा, पैंट, चाकू, चाय, कुर्सी, मेज, बस, कार रेल, रिक्शा, चेक, ड्राफ्ट, कामरेड, दफ्तर, फाइल, बैंक आदि में से कोई अंग्रेजी का शब्द है, तो कोई अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, जापानी आदि में से किसी का। और ऐसे शब्दों की एक लम्बी सूची है। असल में यह हिंदी की ताकत है, कमजोरी नहीं।
लेखों में अनेक देशी-विदेशी प्रबंधन-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालकों आदि के उद्धरण मिलेंगे; यह ज्ञान बघारने या बोझ से मारने के लिए नहीं, बात को स्पष्ट करने और प्रामाणिक बनाने के लिए हैं।
अशोक महेश्वरी जी ने जब मुझे पत्र लिखकर सूचित किया कि वे ‘कारोबार’ में मेरे लेख नियमित रूप से पढ़ रहे हैं और उनसे स्वयं उन्हें भी बहुत लाभ पहुँचा है, तो मेरे उत्साह की कोई सीमा न रही। अब वे उन्हें पुस्तक-रूप में छापने का दायित्व भी उठा रहे हैं। हरीश आनंद जी ने भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर मेरी सहायता की है। उनके द्वारा सुनाया गया किस्सा मुझे अब तक याद है और वह यह कि एक व्यक्ति ने अपने हाथों में पकड़े एक पक्षी को पीठ पीछे ले जाते हुए अपने मित्र से पूछा- बताओ, यह पक्षी मरा हुआ है या जिंदा ? मित्र ने झट से कहा-ऑप्शन तुम्हारे पास है, क्योंकि अगर मैं कहूँगा कि जिंदा है, तो तुम पीछे ही इसकी गर्दन मरोड़कर मुझे दिखा सकते हो; और मैं कहूँ कि मरा हुआ है, तो जिंदा तो तुम इसे दिखा ही दोगे। इसी की तर्ज पर मैं भी यह कहना चाहता हूं कि प्रबंधन एक ऐसी विद्या है, जिसके द्वारा हम अपने व्यक्तित्व, घर-परिवार दफ्तर और कारोबार-सबकी काया पलट सकते हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। हम ऐसा करें या नहीं, यह विकल्प हमारे अपने हाथ में है।
अंत में, जिस-जिससे भी मुझे अपने इस प्रयास में सहायता मिली, उन सबके प्रति मैं शायर के इन शब्दों में आभार व्यक्त करता हूँ :
नशेमन पे मेरे एहसान सारे चमन का है,
कोई तिनका कहीं का है, कोई तिनका कहीं का है।
-सुरेश कांत
अपने व्यक्तित्व को परखते रहें
गति में रुकावट अपने ही व्यक्तित्व की
खामियों का नतीजा होती है
हम सभी अपने जीवन में दो चीजें चाहते हैं और उन्हें प्राप्त करने के लिए दिन-रात प्रयास करते रहते हैं। ये दो चीजें हैं-सफलता और प्रसन्नता। अगर हम इन दोनों को परिभाषित करने की कोशिश करें। तो पाएँगे कि इन दोनों में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है और दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। सफलता की व्याख्या बहुत-से मनोवैज्ञानिकों ने की है और उन सबमें सामान्य बात यह है कि किसी भी आदमी के व्यक्तित्व की आनंददायक व संपूर्ण अभिव्यक्ति, जो आंतरिक (आदमी के मन में) और बाह्य (समाज या समूह में) सामंजस्य की वृद्धि करे, उसकी सफलता है और जिसे यह सामंजस्य उपलब्ध है, वही सफल व्यक्ति है।
अब आप देखेंगे कि बहुत-सी धन-संपत्ति से घर को भर लेना, तरह-तरह की सुविधाएँ जुटा लेना, उच्च पद प्राप्त कर लेना या प्रसिद्ध हो जाना ही सफलता नहीं है। आपने किसी ऐसे धनवान व्यापारी को देखा होगा, जो सैकड़ों जी-हुजूरियों और चापलूसों से घिरा रहता है और अपने पैसे से सारे भौतिक सुख खरीद लेता है, फिर भी उसे भीतर कहीं भारी असंतोष, कोई चुभती हुई ग्लानि या एक निरर्थकता का बोध अथवा खोखलेपन का एहसास कचोटता रहता है। इस अतृप्ति के डंक से बचने के लिए ही वह ज्यादा, और ज्यादा धन-दौलत के पीछे दौड़ता रहता है। बात साफ है, वह सफल नहीं है। जीवन की असंख्य अभिलाषाओं के अतृप्त रहने के कारण ही वह दिन-रात धन के पीछे पड़ा रहकर अपने-आपको एक छलावे से संतुष्ट कर रहा है।
हम सभी अपने जीवन में दो चीजें चाहते हैं और उन्हें प्राप्त करने के लिए दिन-रात प्रयास करते रहते हैं। ये दो चीजें हैं-सफलता और प्रसन्नता। अगर हम इन दोनों को परिभाषित करने की कोशिश करें। तो पाएँगे कि इन दोनों में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है और दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। सफलता की व्याख्या बहुत-से मनोवैज्ञानिकों ने की है और उन सबमें सामान्य बात यह है कि किसी भी आदमी के व्यक्तित्व की आनंददायक व संपूर्ण अभिव्यक्ति, जो आंतरिक (आदमी के मन में) और बाह्य (समाज या समूह में) सामंजस्य की वृद्धि करे, उसकी सफलता है और जिसे यह सामंजस्य उपलब्ध है, वही सफल व्यक्ति है।
अब आप देखेंगे कि बहुत-सी धन-संपत्ति से घर को भर लेना, तरह-तरह की सुविधाएँ जुटा लेना, उच्च पद प्राप्त कर लेना या प्रसिद्ध हो जाना ही सफलता नहीं है। आपने किसी ऐसे धनवान व्यापारी को देखा होगा, जो सैकड़ों जी-हुजूरियों और चापलूसों से घिरा रहता है और अपने पैसे से सारे भौतिक सुख खरीद लेता है, फिर भी उसे भीतर कहीं भारी असंतोष, कोई चुभती हुई ग्लानि या एक निरर्थकता का बोध अथवा खोखलेपन का एहसास कचोटता रहता है। इस अतृप्ति के डंक से बचने के लिए ही वह ज्यादा, और ज्यादा धन-दौलत के पीछे दौड़ता रहता है। बात साफ है, वह सफल नहीं है। जीवन की असंख्य अभिलाषाओं के अतृप्त रहने के कारण ही वह दिन-रात धन के पीछे पड़ा रहकर अपने-आपको एक छलावे से संतुष्ट कर रहा है।
सुविधा बनाम आनंद
प्रसन्नता सफलता का ही परिणाम है। समूह में
जिन अंतस्सबंधों के ताने-बाने
में हम रहते हैं, उन मानवीय संबंधों को हम स्नेह की ऊष्मा दे सकें और
प्रेम का आदान-प्रदान करते हुए सहज अभिव्यक्ति से परितोष पा सकें, यही
हमारे लिए प्रसन्नता होगी। अपने किसी चारित्रिक दोष, मनोवैज्ञानिक कुंठा,
व्यक्तित्व की अपरिपक्वता अथवा मानसिक रुग्णता के कारण यदि हम प्रेम की
ऊष्मा और संबंधों की सहजता का आनंद नहीं उठा सकते, तो धन-दौलत,
जमीन-जायदाद, उच्च पद आदि हमें प्रसन्नता नहीं दे सकेंगे। इनसे सुविधा
मिलती है, आनंद नहीं।
अकसर लोग सफलता और तरक्की की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए किसी एक मंजिल पर पहुँचकर रुक जाते हैं। उनका विकास ठहर जाता है। आगे कोई रास्ता नजर नहीं आता। आसपास के लोग आगे बढ़ते दिखाई देते हैं। स्थिर व्यक्ति रुककर सड़ते हुए पानी की तरह ठहराव महसूस करते हैं। गति में रुकावट प्रायः हमारे ही व्यक्तित्व की कमियों या चारित्रिक दोषों के कारण आती है, साधनों की कमी या परिस्थितियों की खराबी से नहीं।
अकसर लोग सफलता और तरक्की की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए किसी एक मंजिल पर पहुँचकर रुक जाते हैं। उनका विकास ठहर जाता है। आगे कोई रास्ता नजर नहीं आता। आसपास के लोग आगे बढ़ते दिखाई देते हैं। स्थिर व्यक्ति रुककर सड़ते हुए पानी की तरह ठहराव महसूस करते हैं। गति में रुकावट प्रायः हमारे ही व्यक्तित्व की कमियों या चारित्रिक दोषों के कारण आती है, साधनों की कमी या परिस्थितियों की खराबी से नहीं।
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